Sunday, October 16, 2011

मेरी कल्पना का संसार

इस राह पर मैं तनहा चल पड़ा हूँ ,
मंजिल को अपनी तज न जाने कहाँ बढ़ चला हूँ |
कल्पित वास्तविकता को अपनी संगिनी माने ,
बेफिक्री में ,
अपने अस्तित्व को झुठलाकर ,
एक प्रथक राह का रुख कर चला हूँ |

वास्तविकता कठोर है ,
इसका बोध तो दुनिया को है |
किन्तु क्या सब इसे इतनी सहजता से स्वीकार लेते हैं ?
अपनी नियति मान बैठते हैं ?
क्या कल्पित वास्तविकता का मोह,
उन्हें छूकर भी नहीं गया |

धुंधलके को पथ प्रदर्शक माने, मैं
स्वयं अपनी राह से अनजान ,
अपनी कल्पना से बनाये अपनी पहचान ,
चल पड़ा हूँ मैं एक ऐसे संसार की खोज में ,
जहाँ मेरी रची हुई वास्तविकता को
बहु रंगी पर लग जायें |

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